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अ॒र्वाङेहि॒ सोम॑कामं त्वाहुर॒यं सु॒तस्तस्य॑ पिबा॒ मदा॑य। उ॒रु॒व्यचा॑ ज॒ठर॒ आ वृ॑षस्व पि॒तेव॑ नः शृणुहि हू॒यमा॑नः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

arvāṅ ehi somakāmaṁ tvāhur ayaṁ sutas tasya pibā madāya | uruvyacā jaṭhara ā vṛṣasva piteva naḥ śṛṇuhi hūyamānaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒र्वाङ्। आ। इ॒हि॒। सोम॑ऽकामम्। त्वा॒। आ॒हुः॒। अ॒यम्। सु॒तः। तस्य॑। पि॒ब॒। मदा॑य। उ॒रु॒ऽव्यचाः॑। ज॒ठरे॑। आ। वृ॒ष॒स्व॒। पि॒ताऽइ॑व। नः॒। शृ॒णु॒हि॒। हू॒यमा॑नः ॥ १.१०४.९

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:104» मन्त्र:9 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:19» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर प्रजा को इस सभापति के साथ क्या प्रतिज्ञा करनी चाहिये, यह अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभाध्यक्ष ! जिससे (त्वा) आपको (सोमकामम्) कूटे हुए पदार्थों के रस की कामना करनेवाले (आहुः) बतलाते हैं इससे आप (अर्वाङ्) अन्तरङ्ग व्यवहार में (आ, इहि) आओ, (अयम्) यह जो (सुतः) निकाला हुआ पदार्थों का रस है (तस्य) उसको (मदाय) हर्ष के लिये (पिब) पिओ, (उरुव्यचाः) जिसका बहुत और अनेक प्रकार का पूजन सत्कार है वह आप (जठरे) जिससे सब व्यवहार होते है उस पेट में (आ, वृषस्व) आसेचन कर अर्थात् उस पदार्थ को अच्छी प्रकार पीओ तथा हम लोगों से (हूयमानः) प्रार्थना को प्राप्त हुए आप (पितेव) जैसे प्रेम करता हुआ पिता पुत्र की सुनता है वैसे (नः) हमारी (शृणुहि) सुनिये ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - प्रजाजनों को चाहिये कि सभापति आदि राजपुरुषों को खान, पान, वस्त्र, धन, यान और मीठी-मीठी बातों से सदा आनन्दित बनाये रहें और राजपुरुषों को भी चाहिये कि प्रजाजनों को पुत्र के समान निरन्तर पालें ॥ ९ ॥इस सूक्त में सभापति राजा और प्रजा के करने योग्य व्यवहार के वर्णन से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह १०४ एकसौ चारवाँ सूक्त और १९ उन्नीसवाँ वर्ग पूरा हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः प्रजया तेन सह किं प्रतिज्ञातव्यमित्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे सभाध्यक्ष यतस्त्वा त्वां सोमकाममाहुरतस्त्वमर्वाङेहि। अयं सुतस्तस्य मदाय पिब। उरुव्यचास्त्वं जठरे आवृषस्व। अस्माभिर्हूयमानस्त्वं पितेव नः शृणुहि ॥ ९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अर्वाङ्) अर्वाचीने व्यवहारे (आ, इहि) आगच्छ (सोमकामम्) अभिषुतानां पदार्थानां रसं कामयते यस्तम् (त्वा) त्वाम् (आहुः) कथयन्ति (अयम्) प्रसिद्धः (सुतः) निष्पादितः (तस्य) तम्। अत्र शेषत्वविवक्षायां कर्मणि षष्ठी। (पिब) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (मदाय) हर्षाय (उरुव्यचाः) उरु बहुविधं व्यचो विज्ञानं पूजनं सत्करणं वा यस्य सः (जठरे) जायन्ते यस्मादुदराद्वा तस्मिन्। जनेररष्ठ च। उ० ५। ३८। अत्र जन धातोऽरः प्रत्ययो नकारस्य ठकारश्च। (आ) (वृषस्व) सिञ्चस्व (पितेव) यथा दयमानः पिता तथा (नः) अस्माकम् (शृणुहि) (हूयमानः) कृताह्वानः सन् ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - प्रजास्थैः सभापत्यादयो राजपुरुषा अन्नपानवस्त्रधनयानमधुरभाषणादिभिः सदा हर्षयितव्याः। राजपुरुषैश्च प्रजास्थाः प्राणिनः पुत्रवत्सततं पालनीया इति ॥ ९ ॥ अत्र सभापते राज्ञः प्रजायाश्च कर्त्तव्यकर्मवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्बोध्या ॥इति चतुरधिकशतं सूक्तमेकोनविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - प्रजेने सभापती इत्यादी राजपुरुषांना खान, पान, वस्त्र, धन, यान व मधुर वचनांनी सदैव आनंदित ठेवावे व राजपुरुषांनी प्रजेला पुत्राप्रमाणे वागवावे ॥ ९ ॥